जयपुर। जयपुर शहर बीजेपी की कार्यकारिणी को लेकर शुक्रवार को जो कुछ हुआ, उसने न केवल पार्टी कार्यकर्ताओं को चौंकाया, बल्कि राजस्थान की सत्ता और संगठन के बीच के समीकरणों पर भी सवाल खड़े कर दिए। 34 नामों की सूची पोस्ट हुई, फिर डिलीट कर दी गई। लेकिन जो हुआ वो भारतीय जनता पार्टी की कार्यसंस्कृति से बिल्कुल अलग था — क्योंकि ये सूची महज़ नामों की नहीं थी, ये दरअसल 'सिफारिशों के प्रभाव' की खुली पोल थी।
राजनीतिक रूप से सबसे गंभीर बात ये रही कि कार्यकारिणी के 22 पदाधिकारी सीधे तौर पर किसी-न-किसी नेता की सिफारिश से जुड़े थे — वो नेता चाहे मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा हों, उपमुख्यमंत्री दीया कुमारी, या फिर कर्नल राज्यवर्धन जैसे मंत्री। इससे स्पष्ट हो गया कि जयपुर शहर भाजपा के संगठनात्मक ढांचे पर सत्ता पक्ष का सीधा हस्तक्षेप है।
भाजपा के लिए यह स्थिति असहज इसलिए भी है क्योंकि यह पार्टी अक्सर काडर आधारित और संगठन-प्रधान पार्टी कहलाती रही है। यहां पद मेहनत और प्रतिबद्धता के आधार पर मिलते हैं — यह पुरानी धारणा इस लिस्ट ने तोड़ दी।
भले ही जिला अध्यक्ष अमित गोयल ने तकनीकी गलती बताकर पोस्ट को डिलीट कर दिया, लेकिन "कंप्यूटर ऑपरेटर से गलती" वाली थ्योरी पर कोई भी अनुभवी राजनीतिक कार्यकर्ता विश्वास नहीं करेगा।
यह पोस्ट केवल कार्यकारिणी की सूची नहीं थी, यह सत्ता और संगठन के बीच चल रही रस्साकशी की जबरदस्त मिसाल बन गई है। सूची में जिन नेताओं के नाम के आगे 'सीएम', 'डिप्टी सीएम', 'विधायक' और 'सांसद' के नाम दर्ज थे, वे यह जताते हैं कि संगठन में किसका पलड़ा भारी है।
आक्रोश और अंदरूनी घमासान
जैसे ही सूची वायरल हुई, पार्टी के भीतर विरोध की लहर दौड़ पड़ी। वरिष्ठ नेताओं जैसे कालीचरण सराफ, अशोक परनामी और अनुराधा माहेश्वरी जैसे नाम बाहर रह गए — और इसी ने संगठन की आंतरिक राजनीति को हवा दे दी।
भाजपा की जयपुर इकाई में पहले से ही गुटबाज़ी की चर्चा थी। यह सूची इस आग में घी का काम कर गई। कार्यकर्ताओं के भीतर यह असंतोष इस बात को साफ करता है कि आने वाले नगर निगम चुनावों में ये दरारें बड़ी चुनौतियों में बदल सकती हैं।
सवाल संगठन पर या नेतृत्व पर?
राजनीतिक रूप से अब सवाल जिला अध्यक्ष अमित गोयल की क्षमता पर उठ रहे हैं। क्या वे संगठन और सत्ता के बीच संतुलन नहीं बना पाए या फिर जानबूझकर सत्ता के पक्ष में झुकाव दिखाया?
एक संभावना यह भी है कि नये नेतृत्व को ऊपर से दबाव में सूची बनानी पड़ी हो। यदि ऐसा है, तो ये केंद्र और राज्य के नेतृत्व के लिए भी चेतावनी है कि संगठन का आत्मनिर्भर चेहरा खोता जा रहा है।
क्या बीजेपी अपने मूल स्वरूप से दूर जा रही है?
जयपुर शहर की यह घटना स्थानीय नहीं है — यह पूरे राज्य के संगठनात्मक ढांचे का आईना बन गई है। अगर पार्टी के भीतर पद ‘कर्म’ के बजाय ‘कृपा’ से मिलेंगे, तो भाजपा का वह नैरेटिव कमजोर पड़ेगा, जिसे वह दशकों से बेचती आई है — "पार्टी विथ ए डिफरेंस।"
राजनीतिक विश्लेषण कहता है कि सत्ता का असर संगठन में हो सकता है, लेकिन जब सत्ता 'संगठन को तय' करने लगे, तब पार्टी के भीतर की ताकत बिखरने लगती है।
जयपुर की यह 'गलती से पोस्ट' हुई सूची भले मिटा दी गई हो, लेकिन इससे उठे सवाल अब लंबे समय तक पार्टी के साथ रहेंगे।